ख़याल कुछ यूँ बिलखते हैं सीने में
जैसे गुनाह पिघलते हों
जैसे लफ़्ज़ चटकते हों
जैसे रूहें बिछड़ती हों
जैसे लाशें फंफनाती हों
जैसे लम्स खुरदुरे हों
जैसे लब दरदरे हों
जैसे कोई बदन कतरता हो
जैसे कोई समन कचरता हो
ख़याल तेरे कुछ यूँ बिलखते हैं सीने में
Habib Jalib
Rahat Indori
Anwar Masood
Parveen Shakir
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Gulzar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(597) Peoples Rate This
कान्हा
आवाज़
सहेली
दूसरी रात
कार्बन-पेपर
संकरी सी गली
मोहब्बत का घर
तवील ख़ामुशी
24-वाँ साल
दुआ
मुलाक़ात
आग़ाज़