जंगलों में घूमते फिरते हैं शहरों के फ़क़ीह
क्या दरख़्तों से भी छिन जाएगा आलम वज्द का
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पस्पाई
उसूल के जज़ीरे
वो रंग का हुजूम सा वो ख़ुशबुओं की भीड़ सी
खुल गया राज़ छुपी चाह का सब महफ़िल पर
ख़ाक के पुतलों में पत्थर के बदन को वास्ता
हर रौशनी की बूँद पे लब रख चुकी है रात
थकावटों से बैठ के सफ़र उतारिए कहीं
जब सफ़र की धूप में मुरझा के हम दो पल रुके
इन पर्बतों के बीच थी मस्तूर इक गुफा
कई भयानक काली रातों के अँधियारे में
एक आदमी