मेरी दीवानगी-ए-इश्क़ है इक दर्स-ए-जहाँ
मेरे गिरने से बहुत लोग सँभल जाते हैं
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है शाम-ए-अवध गेसू-ए-दिलदार का परतव
हम वो रह-रव हैं कि चलना ही है मस्लक जिन का
किसी को बे-सबब शोहरत नहीं मिलती है ऐ 'वाहिद'
न पूछिए कि शब-ए-हिज्र हम पे क्या गुज़री
ग़ैर-मुमकिन है कि मिट जाए सनम की सूरत
का'बा-ओ-दैर-ओ-कलीसा का तजस्सुस क्यूँ हो
बा'द तकलीफ़ के राहत है यक़ीनी 'वाहिद'
जो दश्त-ए-तमन्ना में हर वक़्त भटकता है
आशियाँ जलने पे बुनियाद नई पड़ती है
आज फिर सर-ए-मक़्तल दे के ख़ुद लहू हम ने
वो और हैं किनारों पे पाते हैं जो सुकूँ
दिलों में ज़ख़्म होंटों पर तबस्सुम