है शाम-ए-अवध गेसू-ए-दिलदार का परतव
और सुब्ह-ए-बनारस है रुख़-ए-यार का परतव
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आशियाँ जलने पे बुनियाद नई पड़ती है
शख़्सिय्यत-ए-फ़नकार मुअ'म्मा नहीं 'वाहिद'
क्यूँ शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-साक़ी है लबों पर
आज़ाद तो बरसों से हैं अरबाब-ए-गुलिस्ताँ
ग़म भी है कैफ़ भी है सोज़ भी है साज़ भी है
दिलों में ज़ख़्म होंटों पर तबस्सुम
शब-ए-फ़िराक़ कई बार गोशा-ए-दिल से
जो दश्त-ए-तमन्ना में हर वक़्त भटकता है
कोई गर्दिश हो कोई ग़म हो कोई मुश्किल हो
वो और हैं किनारों पे पाते हैं जो सुकूँ
अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
एक मुद्दत से इसी उलझन में हूँ