शख़्सिय्यत-ए-फ़नकार मुअ'म्मा नहीं 'वाहिद'
फ़न ही में हुआ करता है फ़नकार का परतव
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(585) Peoples Rate This
क्यूँ शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-साक़ी है लबों पर
आशियाँ जलने पे बुनियाद नई पड़ती है
अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
राह-रौ चुप हैं राहबर ख़ामोश
किसी को बे-सबब शोहरत नहीं मिलती है ऐ 'वाहिद'
शब-ए-फ़िराक़ कई बार गोशा-ए-दिल से
अँधेरों में उजाले ढूँढता हूँ
हक़ बात सर-ए-बज़्म भी कहने में तअम्मुल
मैं औरों को क्या परखूँ आइना-ए-आलम में
कोई हंगामा-ए-हयात नहीं
गुल ग़ुंचे आफ़्ताब शफ़क़ चाँद कहकशाँ