मैं औरों को क्या परखूँ आइना-ए-आलम में
मुहताज-ए-शनासाई जब अपना ही चेहरा है
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राह-ए-तलब की लाख मसाफ़त गिराँ सही
हुजूम-ए-ग़म से मिली है हयात-ए-नौ मुझ को
ग़म भी है कैफ़ भी है सोज़ भी है साज़ भी है
है शाम-ए-अवध गेसू-ए-दिलदार का परतव
कभी न हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'
अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
शब-ए-फ़िराक़ कई बार गोशा-ए-दिल से
शख़्सिय्यत-ए-फ़नकार मुअ'म्मा नहीं 'वाहिद'
क्यूँ शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-साक़ी है लबों पर
का'बा-ओ-दैर-ओ-कलीसा का तजस्सुस क्यूँ हो
अँधेरों में उजाले ढूँढता हूँ
बा'द तकलीफ़ के राहत है यक़ीनी 'वाहिद'