शब-ए-फ़िराक़ कई बार गोशा-ए-दिल से
उठी तो आह मगर आह बे-असर उट्ठी
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आशियाँ जलने पे बुनियाद नई पड़ती है
बा'द तकलीफ़ के राहत है यक़ीनी 'वाहिद'
दिलों में ज़ख़्म होंटों पर तबस्सुम
कभी न हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'
राह-रौ चुप हैं राहबर ख़ामोश
अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
आज़ाद तो बरसों से हैं अरबाब-ए-गुलिस्ताँ
ग़ैर-मुमकिन है कि मिट जाए सनम की सूरत
न पूछिए कि शब-ए-हिज्र हम पे क्या गुज़री
हक़ बात सर-ए-बज़्म भी कहने में तअम्मुल
वो और हैं किनारों पे पाते हैं जो सुकूँ