राह-ए-तलब की लाख मसाफ़त गिराँ सही
दुनिया को मैं जहाँ भी मिला ताज़ा-दम मिला
Gulzar
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हक़ बात सर-ए-बज़्म भी कहने में तअम्मुल
दिलों में ज़ख़्म होंटों पर तबस्सुम
कोई गर्दिश हो कोई ग़म हो कोई मुश्किल हो
किस शान किस वक़ार से किस बाँकपन से हम
क्यूँ शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-साक़ी है लबों पर
हम वो रह-रव हैं कि चलना ही है मस्लक जिन का
आशियाँ जलने पे बुनियाद नई पड़ती है
कभी न हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'
वो और हैं किनारों पे पाते हैं जो सुकूँ
हुजूम-ए-ग़म से मिली है हयात-ए-नौ मुझ को
कोई हंगामा-ए-हयात नहीं