क्यूँ शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-साक़ी है लबों पर
पीना है तो ख़ुद बढ़ के पियो बादा-गुसारो
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दिलों में ज़ख़्म होंटों पर तबस्सुम
किसी को बे-सबब शोहरत नहीं मिलती है ऐ 'वाहिद'
शिद्दत-ए-शौक़ असर-ख़ेज़ है जादू की तरह
का'बा-ओ-दैर-ओ-कलीसा का तजस्सुस क्यूँ हो
हक़ बात सर-ए-बज़्म भी कहने में तअम्मुल
आज फिर सर-ए-मक़्तल दे के ख़ुद लहू हम ने
कोई हंगामा-ए-हयात नहीं
न पूछिए कि शब-ए-हिज्र हम पे क्या गुज़री
ग़म भी है कैफ़ भी है सोज़ भी है साज़ भी है
कभी न हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'
गुल ग़ुंचे आफ़्ताब शफ़क़ चाँद कहकशाँ