कोई गर्दिश हो कोई ग़म हो कोई मुश्किल हो
जिस को आना हो हमारे वो मुक़ाबिल आए
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अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे
शिद्दत-ए-शौक़ असर-ख़ेज़ है जादू की तरह
उफ़ गर्दिश-ए-हयात तिरी फ़ित्ना-साज़ियाँ
है शाम-ए-अवध गेसू-ए-दिलदार का परतव
किसी को बे-सबब शोहरत नहीं मिलती है ऐ 'वाहिद'
एक मुद्दत से इसी उलझन में हूँ
मैं औरों को क्या परखूँ आइना-ए-आलम में
का'बा-ओ-दैर-ओ-कलीसा का तजस्सुस क्यूँ हो
ग़ैर-मुमकिन है कि मिट जाए सनम की सूरत
ग़म भी है कैफ़ भी है सोज़ भी है साज़ भी है
हुजूम-ए-ग़म से मिली है हयात-ए-नौ मुझ को
आज फिर सर-ए-मक़्तल दे के ख़ुद लहू हम ने