उफ़ गर्दिश-ए-हयात तिरी फ़ित्ना-साज़ियाँ
अपने वतन में दूर हैं अहल-ए-वतन से हम
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हक़ बात सर-ए-बज़्म भी कहने में तअम्मुल
किसी को बे-सबब शोहरत नहीं मिलती है ऐ 'वाहिद'
किस शान किस वक़ार से किस बाँकपन से हम
आशियाँ जलने पे बुनियाद नई पड़ती है
इस तरह हुस्न-ओ-मोहब्बत की करो तुम तफ़्सीर
कोई गर्दिश हो कोई ग़म हो कोई मुश्किल हो
शब-ए-फ़िराक़ कई बार गोशा-ए-दिल से
क्यूँ शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-साक़ी है लबों पर
वो और हैं किनारों पे पाते हैं जो सुकूँ
दिलों में ज़ख़्म होंटों पर तबस्सुम
एक मुद्दत से इसी उलझन में हूँ