आसमानों पर भी हैं चर्चे हुस्न-ए-आलमगीर के
चाँद ने भी रंग उड़ाए चाँद सी तस्वीर के
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कम सितम करने में क़ातिल से नहीं दिल मेरा
नज़्अ' में प्यार से क्यूँ पूछते हो तुम मुझ को
वहाँ अब जा के देखें हम से क्या इरशाद करते हैं
भर दीं शबाब ने ये उन आँखों में शोख़ियाँ
हम ने उस शोख़ की रानाई क़ामत देखी
क्या हुआ उस ने जो आशिक़ से जफ़ाकारी की
क़तरे गिरे जो कुछ अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के
जाए आशिक़ की बला हश्र में क्या रक्खा है
पत्थर नज़र थी वाइ'ज़-ए-ख़ाना-ख़राब की
उसे बहिश्त के ज़िंदाँ में भेज देना तुम
जुर्म इतने कर चला हूँ हश्र तक लिक्खेंगे रोज़