जुर्म इतने कर चला हूँ हश्र तक लिक्खेंगे रोज़
कातिब-ए-आमाल पाएँगे न फ़ुर्सत काम से
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जाए आशिक़ की बला हश्र में क्या रक्खा है
मौत आई मुझे कूचे में तिरे जाने से
नज़्अ' में प्यार से क्यूँ पूछते हो तुम मुझ को
क़तरे गिरे जो कुछ अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के
फ़लक बेदाद करता है जो जौर ईजाद करते हैं
कम सितम करने में क़ातिल से नहीं दिल मेरा
हम ने उस शोख़ की रानाई क़ामत देखी
आसमानों पर भी हैं चर्चे हुस्न-ए-आलमगीर के
शरीर तेरी तरह आँख भी तिरी होगी
फूल अपने वस्फ़ सुनते हैं उस ख़ुश-नसीब से
पत्थर नज़र थी वाइ'ज़-ए-ख़ाना-ख़राब की