क़िस्मत ही में रौशनी नहीं थी
बादल तो कभी का छट रहा था
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वो दिन गए कि छुप के सर-ए-बाम आएँगे
अब दिन की बातें करते हैं
दरमाँदा
रेज़ा रेज़ा कर जाता है
उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना
मंज़र था राख और तबीअत उदास थी
उम्र भर उस ने बेवफ़ाई की
बे-सदा दम-ब-ख़ुद फ़ज़ा से डर
वो ख़ुश-कलाम है ऐसा कि उस के पास हमें
रंग और रूप से जो बाला है
जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया
आसमाँ पर अब्र-पारे का सफ़र मेरे लिए