आज भी ज़ख़्म ही खिलते हैं सर-ए-शाख़-ए-निहाल
नख़्ल-ए-ख़्वाहिश पे वही बे-समरी रहना थी
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हम अपनी पुश्त पर खुली बहार ले के चल दिए
शहर-ए-सुख़न अजीब हो गया है
मिरी दुआओं की सब नग़्मगी तमाम हुई
अगर वो आज रात हद्द-ए-इल्तिफ़ात तोड़ दे
सुख़न को बे-हिसी की क़ैद से बाहर निकालूँ
रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी
मसअलों की भीड़ में इंसाँ को तन्हा कर दिया
पहाड़ जैसी अज़्मतों का दाख़िला था शहर में
लहू महका तो सारा शहर पागल हो गया है
जो तू नहीं तो मौसम-ए-मलाल भी न आएगा