अगर वो आज रात हद्द-ए-इल्तिफ़ात तोड़ दे
कभी फिर उस से प्यार का ख़याल भी न आएगा
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हम अपनी पुश्त पर खुली बहार ले के चल दिए
मिरी दुआओं की सब नग़्मगी तमाम हुई
तू ला-मकाँ में रहे और मैं मकाँ में असीर
लहू महका तो सारा शहर पागल हो गया है
सुख़न को बे-हिसी की क़ैद से बाहर निकालूँ
अल-अमाँ कि सूरज है मेरी जान के पीछे
मसअलों की भीड़ में इंसाँ को तन्हा कर दिया
रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी
शहर-ए-सुख़न अजीब हो गया है
आज भी ज़ख़्म ही खिलते हैं सर-ए-शाख़-ए-निहाल