तू ला-मकाँ में रहे और मैं मकाँ में असीर
ये क्या कि मुझ पे इताअत तिरी हराम हुई
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अल-अमाँ कि सूरज है मेरी जान के पीछे
सुख़न को बे-हिसी की क़ैद से बाहर निकालूँ
मसअलों की भीड़ में इंसाँ को तन्हा कर दिया
पहाड़ जैसी अज़्मतों का दाख़िला था शहर में
मिरी दुआओं की सब नग़्मगी तमाम हुई
रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी
शहर-ए-सुख़न अजीब हो गया है
लहू महका तो सारा शहर पागल हो गया है
लर्ज़ां तरसाँ मंज़र चुप
हम अपनी पुश्त पर खुली बहार ले के चल दिए
जो तू नहीं तो मौसम-ए-मलाल भी न आएगा