शौहरों से बीबियाँ लड़ती हैं छापा-मार जंग
राब्ता उन का भी क्या कश्मीर की वादी से है
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कव्वा और कोयल
आता है याद मुझ को
गुड़िया की शादी
इस ज़माने की अजब तिश्ना-लबी है ऐ 'ज़फ़र'
किसी का हो नहीं सकता है कोई काम रोज़े में
इश्क़ जब से हो गया इक लखनवी ख़ातून से
हँसी में हक़ जता कर घर-जमाई छीन लेता है
तराना
निकाह कर नहीं सकती वो मुझ फ़क़ीर के साथ
नाम से गाँधी के चिढ़ बैर आज़ादी से है
वही सुलूक ज़माने ने मेरे साथ किया