ता-मर्ग मुझ से तर्क न होगी कभी नमाज़
पर नश्शा-ए-शराब ने मजबूर कर दिया
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किसी सय्याद की पड़ जाए न चिड़िया पे नज़र
मुद्दत के बा'द इस ने लिखा मेरे नाम ख़त
मद्दाह हूँ मैं दिल से मोहम्मद की आल का
मय-कशो देर है क्या दौर चले बिस्मिल्लाह
मज़ा है इम्तिहाँ का आज़मा ले जिस का जी चाहे
दो-शाला शाल कश्मीरी अमीरों को मुबारक हो
ज़ाहिदो कअ'बे की जानिब खींचते हो क्यूँ मुझे
ख़ुद मज़ेदार तबीअ'त है तो सामाँ कैसा
नहीं मुमकिन कि तिरे हुक्म से बाहर मैं हूँ
ओ सितमगर तिरी तलवार का धब्बा छट जाए
नमाज़ कैसी कहाँ का रोज़ा अभी मैं शग़्ल-ए-शराब में हूँ
हम न कहते थे कि सौदा ज़ुल्फ़ का अच्छा नहीं