ओ सितमगर तिरी तलवार का धब्बा छट जाए
अपने दामन को लहू से मिरे भर जाने दे
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तिरे जलाल से ख़ुर्शीद को ज़वाल हुआ
हज़ार जान से साहब निसार हम भी हैं
हमारे सामने कुछ ज़िक्र ग़ैरों का अगर होगा
कुछ ऐसी पिला दे मुझे ऐ पीर-ए-मुग़ाँ आज
नमाज़ कैसी कहाँ का रोज़ा अभी मैं शग़्ल-ए-शराब में हूँ
वो कहते हैं उट्ठो सहर हो गई
हम न कहते थे कि सौदा ज़ुल्फ़ का अच्छा नहीं
मय-कशों में न कोई मुझ सा नमाज़ी होगा
ता-मर्ग मुझ से तर्क न होगी कभी नमाज़
किसी को कोसते क्यूँ हो दुआ अपने लिए माँगो
ख़ुद मज़ेदार तबीअ'त है तो सामाँ कैसा