तमाम उम्र कटी उस की जुस्तुजू करते
बड़े दिनों में ये तर्ज़-ए-कलाम आया है
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ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गया
जिस ने किए हैं फूल निछावर कभी कभी
दास्तान-ए-शौक़ कितनी बार दोहराई गई
बस्तियाँ कुछ हुईं वीरान तो मातम कैसा
वो एहतियात के मौसम बदल गए कैसे
ख़ुश्क खेती है मगर उस को हरी कहते हैं
हम तो कहते थे ज़माना ही नहीं जौहर-शनास
हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
अभी आते नहीं उस रिंद को आदाब-ए-मय-ख़ाना
हर इक जन्नत के रस्ते हो के दोज़ख़ से निकलते हैं
हमारे हाथ में जब कोई जाम आया है
टीपू की आवाज़