साहिल के सुकूँ से किसे इंकार है लेकिन
तूफ़ान से लड़ने में मज़ा और ही कुछ है
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एक दीवाने को इतना ही शरफ़ क्या कम है
ख़्वाबों से यूँ तो रोज़ बहलते रहे हैं हम
हर इक जन्नत के रस्ते हो के दोज़ख़ से निकलते हैं
मय-कशी के भी कुछ आदाब बरतना सीखो
जहाँ में हो गई ना-हक़ तिरी जफ़ा बदनाम
ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गया
लोग तन्हाई का किस दर्जा गिला करते हैं
ख़याल जिन का हमें रोज़-ओ-शब सताता है
लोग माँगे के उजाले से हैं ऐसे मरऊब
कुछ लोग तग़य्युर से अभी काँप रहे हैं
हम तो कहते थे ज़माना ही नहीं जौहर-शनास
अभी आते नहीं उस रिंद को आदाब-ए-मय-ख़ाना