घर में और बहुत कुछ था
सिर्फ़ दर-ओ-दीवार न थे
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ये भी नहीं बीमार न थे
घर के अंदर जाने के
सफ़र तो पहले भी कितने किए मगर इस बार
पहले ही क्या कम तमाशे थे यहाँ
तू कभी इस शहर से हो कर गुज़र
परछाइयाँ पकड़ने वाले
'आशुफ़्ता' अब उस शख़्स से क्या ख़ाक निबाहें
न इब्तिदा की ख़बर और न इंतिहा मालूम
पनाहें ढूँढ के कितनी ही रोज़ लाता है
किस की तलाश है हमें किस के असर में हैं
घरौंदे ख़्वाबों के सूरज के साथ रख लेते
फ़रियादी मातम