मुशाबहत के ये धोके मुमासलत के फ़रेब
मिरा तज़ाद लिए मुझ सा हू-ब-हू क्या है
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बातिन से सदफ़ के दुर-ए-नायाब खुलेंगे
यूँ तो सौ तरह की मुश्किल सुख़नी आए हमें
बम्बई की एक पुरानी शाम
नींद मिट्टी की महक सब्ज़े की ठंडक
मिरे मह ओ साल की कहानी की दूसरी क़िस्त इस तरह है
बयाज़ पर सँभल सके न तजरबे
मेरी आँखों से गुज़र कर दिल ओ जाँ में आना
सोच कर भी क्या जाना जान कर भी क्या पाया
न मक़ामात न तरतीब-ए-ज़मानी अपनी
मिरी निगाहों पे जिस ने शाम ओ सहर की रानाइयाँ लिखी हैं
बुझ गई आग तो कमरे में धुआँ ही रखना
सबक़ उम्र का या ज़माने का है