उसे खिलौनों से बढ़ कर है फ़िक्र रोटी की
हमारे दौर का बच्चा जनम से बूढ़ा है
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वो बड़ा था फिर भी वो इस क़दर बे-फ़ैज़ था
जहाँ तक पाँव मेरे जा सके हैं
अभी तक हौसला ठहरा हुआ है
न जाने कौन फ़ज़ाओं में ज़हर घोल गया
ये मैं हूँ ख़ुद कि कोई और है तआक़ुब में
अगर वो बे-अदब है बे-अदब लिख
जफ़ा के ज़िक्र पे वो बद-हवास कैसा है
आँख थी सूजी हुई और रात भर सोया न था
ख़ौफ़-ओ-वहशत बर-सर-ए-बाज़ार रख जाता है कौन
एक भी चैन का बिस्तर नहीं होने देता
सब को दिखलाता है वो छोटा बना कर मुझ को