जफ़ा के ज़िक्र पे वो बद-हवास कैसा है
ज़रा सी बात थी लेकिन उदास कैसा है
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ये मैं हूँ ख़ुद कि कोई और है तआक़ुब में
आँख थी सूजी हुई और रात भर सोया न था
जिस्म के मर्तबान में क्या है
वो बड़ा था फिर भी वो इस क़दर बे-फ़ैज़ था
सब को दिखलाता है वो छोटा बना कर मुझ को
न जाने कौन फ़ज़ाओं में ज़हर घोल गया
क्यूँ वो मिलने से गुरेज़ाँ इस क़दर होने लगे
ताज़ा-दम जवानी रख
एक भी चैन का बिस्तर नहीं होने देता
उन के लब पर मिरा गिला ही सही
जहाँ तक पाँव मेरे जा सके हैं