श्याम गोकुल न जाना कि राधा का जी अब न बंसी की तानों पे लहराएगा

श्याम गोकुल न जाना कि राधा का जी अब न बंसी की तानों पे लहराएगा

किस को फ़ुर्सत ग़म-ए-ज़िंदगी से यहाँ कौन बे-वक़्त के राग सुन पाएगा

उस गली से चली दर्द की रौ मगर शहर में अहल-ए-दिल हैं न अहल-ए-नज़र

जाने किस सर से गुज़रेगी ये मौज-ए-ख़ूँ जाने किस घर ये सैलाब-ए-ग़म जाएगा

ज़ुल्मत-ए-ग़म से इतने हिरासाँ न हो कौन मुश्किल है यारो जो आसाँ न हो

ये गराँ-ख़्वाब लम्हे भी कट जाएँगे रात ढल जाएगी दिन निकल आएगा

हर नफ़स हर क़दम हर नए मोड़ पर वक़्त इक ज़ख़्म-ए-नौ दे रहा है मगर

वक़्त ख़ुद अपने ज़ख़्मों का मरहम भी है वक़्त के साथ हर ज़ख़्म भर जाएगा

किस लगन किस तमन्ना से किस चाव से मौसम-ए-रंग-ओ-निकहत को दी थी सदा

क्या ख़बर थी कि अब्र-ए-बहार-आफ़रीं आग के फूल गुलशन पे बरसाएगा

तेरे ग़म के चराग़ों की सद-रंग ज़ौ इक किरन दे सकेगी न एहसास को

बज़्म-ए-जाँ इतनी सुनसान हो जाएगी शहर-ए-दिल इतना वीरान हो जाएगा

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