हुआ है हिन्द के सब्ज़ों का आशिक़
न होवें 'आबरू' के क्यूँ हरे बख़्त
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तुम यूँ सियाह-चश्म ऐ सजन मुखड़े के झुमकों से हुए
मिल गया था बाग़ में माशूक़ इक नक-दार सा
क्या सबब तेरे बदन के गर्म होने का सजन
रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का
क्यूँ न आ कर उस के सुनने को करें सब यार भीड़
दुश्मन-ए-जाँ है तिश्ना-ए-ख़ूँ है
तुम नज़र क्यूँ चुराए जाते हो
पलंग कूँ छोड़ ख़ाली गोद सीं जब उठ गया मीता
नमकीं गोया कबाब हैं फीके शराब के
ख़ुर्शीद-रू के आगे हो नूर का सवाली
तुझ हुस्न के बाग़ में सिरीजन
जाल में जिस के शौक़ आई है