जो दिल में थी निगाह सी निगाह में किरन सी थी
वो दास्ताँ उलझ गई वज़ाहतों के दरमियाँ
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आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था
ख़ामुशी से हुई फ़ुग़ाँ से हुई
न बाम-ओ-दश्त न दरिया न कोहसार मिले
ख़ुद हिजाबों सा ख़ुद जमाल सा था
हर गाम सँभल सँभल रही थी
काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या
कोई संग-ए-रह भी चमक उठा तो सितारा-ए-सहरी कहा
जब दिल की रहगुज़र पे तिरा नक़्श-ए-पा न था
गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ
हिस नहीं तड़प नहीं बाब-ए-अता भी क्यूँ खुले
आशोब-ए-आगही
अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो