लफ़्ज़ की छाँव में

लफ़्ज़ की छाँव में

नीम की पत्तियों का सफ़र तल्ख़ सा

सीलनी जिस्म में रूह बेचैन भी

शहरियत के तक़ाज़े जो टूटे कभी

ज़िंदगी के अमल में भी शक आ पड़ा

टूट कर किस तरह जुड़ गई चाँदनी

धूप लम्हों के चेहरों से गिरती हुई ख़ाक में जा मिली

सर झुकाए हुए कौन सड़कों पे यूँ तुझ को ढूँडा करे

हम-कलामी की इज़्ज़त का बादल सदा सर पे साया फ़गन

जब तेरी ख़ामुशी के मआनी के होंटों से टपके हुए

दूध के चंद क़तरे समुंदर बने

बादबानों के आग़ोश खोले हुए कश्तियाँ चल पड़ीं

तिश्नगी के जज़ीरों पे साया कहाँ

सुब्ह का मोम पिघला तो ख़्वाबों के दिल बुझ गए

बुझ गई रात भी

बुझ गई लफ़्ज़ के हाथ की बात भी

लफ़्ज़ मैदान में सर-निगूँ रह गए

संगसारी की लज़्ज़त लहू बन गई

कौन पोशीदा जज़्बों की चिलमन बने

लफ़्ज़ की छाँव में कोई सूरज ढले

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