दरिया के किनारे पे मिरी लाश पड़ी थी
और पानी की तह में वो मुझे ढूँड रहा था
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पत्थर पर तस्वीर बना कर
तुम को दावा है सुख़न-फ़हमी का
सियाह सायों की तिश्नगी में
तस्वीर में जो क़ैद था वो शख़्स रात को
घूम रहा था एक शख़्स रात के ख़ारज़ार में
बुध
हश्र की सुब्ह दरख़्शाँ हो मक़ाम-ए-महमूद
लहू को सुर्ख़ गुलाबों में बंद रहने दो
नज़्म
टूटी लज़्ज़त की ख़ुशबू
मेरे टूटे हौसले के पर निकलते देख कर
वो तुम तक कैसे आता