दरिया की वुसअतों से उसे नापते नहीं
तन्हाई कितनी गहरी है इक जाम भर के देख
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होने को यूँ तो शहर में अपना मकान था
हज का सफ़र है इस में कोई साथ भी तो हो
कीचड़ में अटा मौसम
अलिफ़ लफ़्ज़ ओ मआनी से मुबर्रा
आवाज़ की दीवार भी चुप-चाप खड़ी थी
मुझे पसंद नहीं ऐसे कारोबार में हूँ
शुऊर नीली रुतूबतों में उलझ गया है
ख़्वाहिश सुखाने रक्खी थी कोठे पे दोपहर
फिर कोई वुसअत-ए-आफ़ाक़ पे साया डाले
एक मंज़र
दरिया के किनारे पे मिरी लाश पड़ी थी
खिड़की ने आँखें खोली