ज़रा ये दूसरा मिस्रा दुरुस्त फ़रमाएँ
मिरे मकान पे लिक्खा है घर बराए-फ़रोख़्त
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दालान में सब्ज़ा है न तालाब में पानी
साथियो अब मुझे रस्ते में उतरना होगा
डुबो रहा है मुझे डूबने का ख़ौफ़ अब तक
बिछड़ने का इरादा है तो मुझ से मशवरा कर लो
हमारे साँस भी ले कर न बच सके अफ़ज़ल
तेरे जाने से ज़्यादा हैं न कम पहले थे
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
तो फिर वो इश्क़ ये नक़्द-ओ-नज़र बराए-फ़रोख़्त
ये जो कुछ लोग ख़यालों में रहा करते हैं
तभी तो मैं मोहब्बत का हवालाती नहीं होता
परिंदे लड़ ही पड़े जाएदाद पर आख़िर