क्या ढूँडने निकली है किसी क़ैस को पागल
इस दर्जा जो ये बाद-ए-बयाबानी हुई है
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आहन ओ संग को ज़हराब-ए-फ़ना चाट गया
बाज़ार-ए-आरज़ू में कटी जा रही है उम्र
उन से भी पूछिए कभी अपनी ज़मीं का कर्ब
किसे ख़बर कि है क्या क्या ये जान थामे हुए
इसी लिए तो हार का हुआ नहीं मलाल तक
सड़क के पार चला जा रहा है बचता हुआ
इश्क़ में हो के मुब्तिला दिल ने कमाल कर दिया
दस्तक हवा की सुन के कभी डर नहीं गया
क़र्या-ए-इंतिज़ार में उम्र गँवा के आए हैं
धुँद में खो के रह गईं सूरतें मेहर-ओ-माह सी