सब मोजज़ों के बाब में ये मोजज़ा भी हो
जो लोग मर गए हैं उन्हें ख़ाक से उठा
Allama Iqbal
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Gulzar
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अब सोचिए तो दाम-ए-तमन्ना में आ गए
ऐ शाम-ए-हिज्र-ए-यार मिरी तू गवाही दे
इसी लिए तो हार का हुआ नहीं मलाल तक
ऐसा इलाज-ए-हब्स-ए-दिल-ए-ज़ार चाहिए
उन से भी पूछिए कभी अपनी ज़मीं का कर्ब
मैं तो सोया भी न था क्यूँ ये दर-ए-ख़्वाब गिरा
धुँद में खो के रह गईं सूरतें मेहर-ओ-माह सी
दस्तक हवा की सुन के कभी डर नहीं गया
फ़ित्ना उठा तो रज़्म-गह-ए-ख़ाक से उठा
इश्क़ में हो के मुब्तिला दिल ने कमाल कर दिया
बाज़ार-ए-आरज़ू में कटी जा रही है उम्र