रमज़ाँ में तू न जा रू-ब-रू उन के 'माइल'
क़ब्ल-ए-इफ़्तार बदल जाएगी निय्यत तेरी
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खोल कर ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को पढ़ी उस ने नमाज़
हमराह अदम से इज़्तिराब आया है
सारी ख़िल्क़त राह में है और हो मंज़िल में तुम
पीरी में शबाब की निशानी न मली
क्या आई थीं हूरें तिरे घर रात को मेहमाँ
नींद से उठ कर वो कहना याद है
वा'दा किया है ग़ैर से और वो भी वस्ल का
मैं ही मोमिन मैं ही काफ़िर मैं ही काबा मैं ही दैर
शब-ए-माह में जो पलंग पर मिरे साथ सोए तो क्या हुए
रू-ए-ताबाँ माँग मू-ए-सर धुआँ बत्ती चराग़
महशर में चलते चलते करूँगा अदा नमाज़
प्यार अपने पे जो आता है तो क्या करते हैं