नींद से उठ कर वो कहना याद है
तुम को क्या सूझी ये आधी रात को
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जुम्बिश में ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन एक इस तरफ़ एक उस तरफ़
चाक-ए-दिल से झाँकिए दुनिया इधर से दीन उधर
पैदल न मुझे रोज़-ए-शुमार उन से दे
खड़े हैं मूसा उठाओ पर्दा दिखाओ तुम आब-ओ-ताब-ए-आरिज़
वा'दा किया है ग़ैर से और वो भी वस्ल का
तौबा खड़ी है दर पे जो फ़रियाद के लिए
मुझ से बिगड़ गए तो रक़ीबों की बन गई
हंगाम-ए-क़नाअ'त दिल-ए-मुर्दा हुआ ज़िंदा
समझ के हूर बड़े नाज़ से लगाई चोट
है हुक्म-ए-आम इश्क़ अलैहिस-सलाम का
महशर में चलते चलते करूँगा अदा नमाज़
नई सदा हो नए होंट हों नया लहजा