मुझ से बिगड़ गए तो रक़ीबों की बन गई
ग़ैरों में बट रहा है मिरा ए'तिबार आज
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मैं अपने कफ़न का सीने वाला निकला
तुम को मालूम जवानी का मज़ा है कि नहीं
पीरी में शबाब की निशानी न मली
दूर से यूँ दिया मुझे बोसा
मुसलमाँ काफ़िरों में हूँ मुसलामानों में काफ़िर हूँ
नई सदा हो नए होंट हों नया लहजा
वो बज़्म में हैं रोते हैं उश्शाक़ चौ तरफ़
अफ़्ज़ूँ जो शबाब दम-ब-दम होता है
कोई हसीन है मुख़्तार-ए-कार-ख़ाना-ए-इश्क़
तुम गले मिल कर जो कहते हो कि अब हद से न बढ़
वा'दा किया है ग़ैर से और वो भी वस्ल का
क्या रोज़-ए-हश्र दूँ तुझे ऐ दाद-गर जवाब