तौबा खड़ी है दर पे जो फ़रियाद के लिए
ये मय-कदा भी क्या किसी क़ाज़ी का घर हुआ
Habib Jalib
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नाज़ कर नाज़ तिरे नाज़ पे है नाज़ मुझे
मुझ से बिगड़ गए तो रक़ीबों की बन गई
मैं ही मोमिन मैं ही काफ़िर मैं ही काबा मैं ही दैर
दुनिया ने मुँह पे डाला है पर्दा सराब का
मिटी कुछ बनी कुछ वो थी कुछ हुई कुछ
ग़फ़लत के तुख़्म बोने वाले उठे
ज़मज़मा नाला-ए-बुलबुल ठहरे
आसमाँ खाए तो ज़मीन देखे
निकली जो रूह हो गए अजज़ा-ए-तन ख़राब
नक़्शा लैल-ओ-नहार का खींचा है
मुसलमाँ काफ़िरों में हूँ मुसलामानों में काफ़िर हूँ
खोल कर ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को पढ़ी उस ने नमाज़