चुप कहीं और लिए फिरती थी बातें कहीं और
दिन कहीं और गुज़रते थे तो रातें कहीं और
Faiz Ahmad Faiz
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रुख़्सत-ए-शब का समाँ पहले कभी देखा न था
बहुत रुक रुक के चलती है हवा ख़ाली मकानों में
रोने लगता हूँ मोहब्बत में तो कहता है कोई
जहान-ए-इश्क़ से हम सरसरी नहीं गुज़रे
नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है
गुज़रे हज़ार बादल पलकों के साए साए
कैसे आ सकती है ऐसी दिल-नशीं दुनिया को मौत
मुँह अंधेरे जगा के छोड़ गई
बरस कर खुल गया अब्र-ए-ख़िज़ाँ आहिस्ता आहिस्ता
अब मंज़िल-ए-सदा से सफ़र कर रहे हैं हम
भागने का कोई रस्ता नहीं रहने देते
उदास कर के दरीचे नए मकानों के