जब शाम उतरती है क्या दिल पे गुज़रती है
साहिल ने बहुत पूछा ख़ामोश रहा पानी
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शबनम को रेत फूल को काँटा बना दिया
ये हम ग़ज़ल में जो हर्फ़-ओ-बयाँ बनाते हैं
भूल गई वो शक्ल भी आख़िर
कैसे उन्हें भुलाऊँ मोहब्बत जिन्हों ने की
हम अपनी धूप में बैठे हैं 'मुश्ताक़'
ये कौन ख़्वाब में छू कर चला गया मिरे लब
ले के हम-राह छलकते हुए पैमाने को
ज़मीं से उगती है या आसमाँ से आती है
वहाँ सलाम को आती है नंगे पाँव बहार
यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
जहान-ए-इश्क़ से हम सरसरी नहीं गुज़रे
रुख़्सत-ए-शब का समाँ पहले कभी देखा न था