कहीं ये अपनी मोहब्बत की इंतिहा तो नहीं
बहुत दिनों से तिरी याद भी नहीं आई
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दिल पे जब दर्द की उफ़्ताद पड़ी होती है
महफ़िल महफ़िल सन्नाटे हैं
दर्द-ए-मुश्तरक
कभी हयात का ग़म है कभी तिरा ग़म है
दिल के सुनसान जज़ीरों की ख़बर लाएगा
मिरे हबीब मिरी मुस्कुराहटों पे न जा
कोई माज़ी के झरोकों से सदा देता है
ग़म-ए-हयात में कोई कमी नहीं आई
ख़ुश्क ख़ुश्क सी पलकें और सूख जाती हैं
वक़्त की बात
हर एक बात के यूँ तो दिए जवाब उस ने
दूर तेरी महफ़िल से रात दिन सुलगता हूँ