आना ज़रा तफ़रीह रहेगी
इक महफ़िल-ए-सदमात करेंगे
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ज़ख़्म इतने हैं बदन पर कि कहीं दर्द नहीं
हम कि इक उम्र रहे इश्वा-ए-दुनिया के असीर
कोई तस्वीर बना ले कि तुझे याद रहें
हैं शाख़ शाख़ परेशाँ तमाम घर मेरे
जी-भर के सितारे जगमगाएँ
थे यहाँ सारे अमल रद्द-ए-अमल के मुहताज
और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है
कब से मैं सफ़र में हूँ मगर ये नहीं मा'लूम
कहाँ मैं और कहाँ गोशा-नशीनी का ये एलान
सारी दुनिया से अलग वहशत-ए-दिल है अपनी
उसी ख़ातिर हटा ली है मसाइल से तवज्जोह