उसी ख़ातिर हटा ली है मसाइल से तवज्जोह
उन्हें थोड़ा सा मैं गम्भीर करना चाहता हूँ
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कुछ देर में ये दिल किसी गिनती में न होगा
ये न देखो कि मिरे ज़ख़्म बहुत कारी हैं
सारी दुनिया से अलग वहशत-ए-दिल है अपनी
किसी सूरत ये नुक्ता-चीनियाँ कुछ रंग तो लाईं
इश्क़ इक मशग़ला-ए-जाँ भी तो हो सकता है
गर्द की तरह सर-ए-राहगुज़र बैठे हैं
ख़ुद अपनी ज़ात से इक मुक़तदी निकालता हूँ
और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है
थे यहाँ सारे अमल रद्द-ए-अमल के मुहताज
खोलीं वो दर किसी ने भी खोला न हो जिसे
कब से मैं सफ़र में हूँ मगर ये नहीं मा'लूम