ख़ुद अपनी ज़ात से इक मुक़तदी निकालता हूँ
मैं अपना शौक़-ए-इमामत यूँही निकालता हूँ
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इस इश्क़ में न पूछो हाल-ए-दिल-ए-दरीदा
गर्द की तरह सर-ए-राहगुज़र बैठे हैं
थे यहाँ सारे अमल रद्द-ए-अमल के मुहताज
कब से मैं सफ़र में हूँ मगर ये नहीं मा'लूम
आना ज़रा तफ़रीह रहेगी
ज़ख़्म इतने हैं बदन पर कि कहीं दर्द नहीं
किसी सूरत ये नुक्ता-चीनियाँ कुछ रंग तो लाईं
और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है
कभी न बदले दिल-ए-बा-सफ़ा के तौर-तरीक़
इक जिस्म हैं कि सर से जुदा होने वाले हैं
चाहे हैं तमाशा मिरे अंदर कई मौसम
जी-भर के सितारे जगमगाएँ