गर्द की तरह सर-ए-राहगुज़र बैठे हैं
इन दिनों और ही अंदाज़-ए-सफ़र है अपना
Ahmad Faraz
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इश्क़ इक मशग़ला-ए-जाँ भी तो हो सकता है
ये क्या कि आशिक़ी में भी फ़िक्र-ए-ज़ियाँ रहे
जी-भर के सितारे जगमगाएँ
आना ज़रा तफ़रीह रहेगी
सुनता है यहाँ कौन समझता है यहाँ कौन
तख़्लीक़ ख़ुद किया था कल अपने में एक घर
आसमाँ-ज़ाद ज़मीनों पे कहीं नाचते हैं
हैं शाख़ शाख़ परेशाँ तमाम घर मेरे
हम कि इक उम्र रहे इश्वा-ए-दुनिया के असीर
और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है
कुछ देर में ये दिल किसी गिनती में न होगा