चराग़ उन पे जले थे बहुत हवा के ख़िलाफ़
बुझे बुझे हैं तभी आज बाम-ओ-दर मेरे
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इश्क़ इक मशग़ला-ए-जाँ भी तो हो सकता है
सारी दुनिया से अलग वहशत-ए-दिल है अपनी
गर्द की तरह सर-ए-राहगुज़र बैठे हैं
थे यहाँ सारे अमल रद्द-ए-अमल के मुहताज
हैं शाख़ शाख़ परेशाँ तमाम घर मेरे
ख़ुद अपनी ज़ात से इक मुक़तदी निकालता हूँ
उसी ख़ातिर हटा ली है मसाइल से तवज्जोह
इस इश्क़ में न पूछो हाल-ए-दिल-ए-दरीदा
खोलीं वो दर किसी ने भी खोला न हो जिसे
कुछ देर में ये दिल किसी गिनती में न होगा
इक जिस्म हैं कि सर से जुदा होने वाले हैं
कभी न बदले दिल-ए-बा-सफ़ा के तौर-तरीक़