खोलीं वो दर किसी ने भी खोला न हो जिसे
कोई जिधर न जाए उधर जाना चाहिए
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Gulzar
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जी-भर के सितारे जगमगाएँ
और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है
उसी ख़ातिर हटा ली है मसाइल से तवज्जोह
इक जिस्म हैं कि सर से जुदा होने वाले हैं
सुनता है यहाँ कौन समझता है यहाँ कौन
कोई तस्वीर बना ले कि तुझे याद रहें
इश्क़ इक मशग़ला-ए-जाँ भी तो हो सकता है
थे यहाँ सारे अमल रद्द-ए-अमल के मुहताज
कब से मैं सफ़र में हूँ मगर ये नहीं मा'लूम
हम कि इक उम्र रहे इश्वा-ए-दुनिया के असीर
सारी दुनिया से अलग वहशत-ए-दिल है अपनी
पर्दा जो उठा दिया गया है