सुनता है यहाँ कौन समझता है यहाँ कौन
ये शग़्ल-ए-सुख़न वक़्त-गुज़ारी के लिए है
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कभी न बदले दिल-ए-बा-सफ़ा के तौर-तरीक़
आसमाँ-ज़ाद ज़मीनों पे कहीं नाचते हैं
जी-भर के सितारे जगमगाएँ
कब से मैं सफ़र में हूँ मगर ये नहीं मा'लूम
आना ज़रा तफ़रीह रहेगी
ज़ख़्म इतने हैं बदन पर कि कहीं दर्द नहीं
ये क्या कि आशिक़ी में भी फ़िक्र-ए-ज़ियाँ रहे
हम कि इक उम्र रहे इश्वा-ए-दुनिया के असीर
चराग़ उन पे जले थे बहुत हवा के ख़िलाफ़
इश्क़ इक मशग़ला-ए-जाँ भी तो हो सकता है
पर्दा जो उठा दिया गया है