तख़्लीक़ ख़ुद किया था कल अपने में एक घर
अब घर से ख़ल्क़ चंद मकीं कर रहे हैं हम
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थे यहाँ सारे अमल रद्द-ए-अमल के मुहताज
कब से मैं सफ़र में हूँ मगर ये नहीं मा'लूम
आसमाँ-ज़ाद ज़मीनों पे कहीं नाचते हैं
इक जिस्म हैं कि सर से जुदा होने वाले हैं
आना ज़रा तफ़रीह रहेगी
सुनता है यहाँ कौन समझता है यहाँ कौन
कुछ देर में ये दिल किसी गिनती में न होगा
चराग़ उन पे जले थे बहुत हवा के ख़िलाफ़
किसी सूरत ये नुक्ता-चीनियाँ कुछ रंग तो लाईं
कभी न बदले दिल-ए-बा-सफ़ा के तौर-तरीक़
खोलीं वो दर किसी ने भी खोला न हो जिसे
हैं शाख़ शाख़ परेशाँ तमाम घर मेरे